Sunday, 17 March 2019

डा० सूरजमणि स्टेला कुजूर की हाइकु कविताएँ

डा० सूरजमणि स्टेला कुजूर की हाइकु कविताएँ लोक की आदिम गंध से सुवासित ऐसी कविताएँ हैं जिनमें संघर्षशील जीवन की टटकी अनुभूतियाँ अपने नैसर्गिक रूप में उपस्थित हैं। उनकी हाइकु कविताएँ पाठक को अनायास आकर्षित करती हैं और प्रभावित भी। डा० कुजूर हाइकु की सिद्धहस्त रचनाकार हैं, यह भी ‘ढेकी के बोल’ की हाइकु कविताओं से स्वतः सिद्ध है। ढेकी के बोल से कुछ डा० कुजूर की कुछ हाइकु कविताएँ-



ढेकी कूटती
गुनगुनाती गीत
लोक को जीती
*

तुम्हारा छाता
खूँटी पर टँगा है
चूहों का घर
*

दिख जाता है
उसकी झोपड़ी से
चाँद का गाँव
*

आहट होते
बुझा दिये जाते हैं
घरों के दीये
*

नदी के पार
गूँजा अनहद नाद
जलपाखी-सा
*

बेटी ने झेली
कोख से कब्र तक
अनन्त पीड़ा
***

-डा० सूरजमणि स्टेला कुजूर
उप शिक्षा निदेशक
शिक्षा निदेशालय
दिल्ली सरकार
( अवकाश प्राप्त)

आगच्छन्तु नर्मदा तीरे


-शास्त्री नित्यगोपाल कटारे

संस्कृत शिक्षक,
शासकीय उ० मा० विद्यालय,
होशंगाबाद (म०प्र०)








आगच्छन्तु नर्मदा तीरे ।
कलकल कलिलं प्रवहति सलिलं
कुरु आचमनं सुधी रे ।

दृष्टा तट सौन्दर्यमनुपमं अवगाहन्तु सुनीरे
सद्यः स्नात्वा जलं पिबन्तु वसति न रोगः शरीरे ।।
आगच्छन्तु नर्मदा तीरे ।

मन्त्रोच्चरितं ज्वलितं दीपं घण्टा ध्वनि प्राचीरे ।
मुनि तपलग्नाः ध्यान निमग्नाः उत्तर दक्षिण तीरे ।।
आगच्छन्तु नर्मदा तीरे ।

बालः पीनः कटि कोपीनः जलयुत्पतति गंभीरे ।
जल यानान्युद्दोलयन्त्युपरि चपले चलित समीरे ।।
आगच्छन्तु नर्मदा तीरे ।

गुरुकुल बालाः पठन्ति वेदान् एकस्वरे गंभीरे ।
रक्षयन्ति नः संस्कृतिमार्यम् निवसन्तस्तु कुटीरे ।।
आगच्छन्तु नर्मदा तीरे ।

मिलन विछोह तरंग सुशोभित


मिलन विछोह तरंग सुशोभित
प्रेम नीर बस बहता जाये
जीवन सरित गीत ये गाये

तनिक रुको हे प्रिया गाँव में
सम्बंधों क़ी सुखद छाँव में
वैभव प्रियतम करे निवेदन
नदिया का भी रुकने का मन
पर परिवर्तन सिन्धु गरज कर
अपनी ओर खीच ले जाये

हे सरिता तुम बहती रहना
प्रेम वारि से सिंचित करना
रुके प्रवाह न कभी तरंगिनि
प्राण ईश से यही मनाये
जीवन सरित गीत ये गाये


-शिवमूर्ति तिवारी
प्राचार्य
शिक्षा निदेशालय, दिल्ली

नारी

तुम,
क्या सावित्री हो ?
क्या माँगी है तुमने
पति की आयु ?
तुम !
क्या सधवा रहोगी सदा ?
नहीं !
तो फिर
तुमने विधवा को
कुलटा क्यों कहा ?
घृणा क्यों करती हो उससे ?
क्या वह
तुम्हारी तरह नारी नहीं ?
क्या तुम समझती हो
उसी ने पति की हत्या की
ताकि समाज उसे
कुलटा, अशुभ
और
विधवा कहे ?
नहीं !
तो फिर मिटा दे
इस घृणा को
अपनी ही जाति से
और लगा ले
उसे भी गले
वह भी तो
सहजात नारी ही है ।


-डा० सूरजमणि स्टेला 'कुजूर'

Friday, 14 October 2011

कागज

- शबाब हैदर


पैदा हुआ हूँ जब से रिश्ता है कागज़ों से
पैदा होने से पहले
मैं आ गया था कागज़ों पर
कभी अल्ट्रासाउण्ड के बहाने
तो कभी एक्सरे के बहाने
कभी जन्म का संदेशा भेजने के बहाने
तो कभी जन्म-पत्री के बहाने
जब हुआ एडमीशन मेरा
फार्म भरा गया कागज़ों का
किताबें पढ़ीं वह भी कागज़ों की
कापी भी कागज़ों की
नौकरी मिली तो ऐसी
वो भी पूरी कागज़ों की
जो मिली सैलरी वो भी थी कागज़ों कीपरिवार चल रहा है
कागज़ के ही सहारे

घर में देखकर अम्बार कागज़ों का
झल्लाती है पत्नी कागज़ों पर
मैं कैसे करूँ बयाँ
मेरी रग-रग में बसा है कागज़
कागज़ है अहम हिस्सा मेरी ज़िन्दगी का
मैं चाह कर भी नहीं कर सकता ज़ुदा
कागज़ों को


- शबाब हैदर

स्नातकोत्तर शिक्षक ( विज्ञान )
PGT (Bio)
SBV Mayur Vihar, ph-I, Pkt-IV,
दिल्ली-110096